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कहीं भीखमंगा न बन जाय भारत?

निष्पक्ष
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जिस तरह आजकल प्रतिवर्ष विकास के नाम पर सेकड़ों हेक्टेयर भूमि की बलि दी जा रही है उससे तो यही प्रतीत होता है कि आने वाले समय में कहीं अनाज के एक एक दाने के लिए दूसरों पर मोहताज न रह जाय भारत. अभी तो हमें  देश कृषि प्रदान देश कहा जाता है लेकिन उपजाऊ भूमि का आधुनिक विकास के नाम पर जो कत्ले आम किया जा रहा है, वो निसंदेह ही चिंता का विषय है.  विकास के नाम पर ऊँची ऊँची इमारतें खड़ी की जा सकती है, सड़कों का जाल बिछाया जा सकता है, बड़े बड़े शोपिंग माल, होटल आदि भौतिक ढांचा तो तैयार किया जा सकता है लेकिन इस पापी पेट का क्या होगा जिसके लिए आज हर आदमीं इतनी भाग दौड़ कर रहा है. जब पेट के लिए ही हमें दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा तो फिर काहे का विकास. क्या करेंगे उन ऊँची ऊँची इमारतों का? क्या करेंगे उन सडकों के जाल का? भले ही ये सवाल एक सक्षम वर्ग के लिए ज्यादा मायने नहीं रखता हो लेकिन उन लाखों-करोड़ों गरीब भारतवाशियों  के जीवन का सवाल है जो आज २ जून की रोटी नसीब नहीं होती है और जो आज भी प्रदूषित पानी को पीने के लिए मजबूर है क्योंकि बिसलेरी के पानी के लिए उनके पास पैसे नहीं होते हैं.

जरा सोचिये अगर हर एक खाद्य सामग्री को हमें आयात करना पड़ेगा तो क्या एक गरीब तबका उसको वहन कर पायेगा जिस देश में आज भी आधी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापित करती है और जिसकी दैनिक आय १५-२० रुपया से भी कम है

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