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मां

निष्पक्ष
निष्पक्ष
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जो रातों को जागती
सपनों को सजाती
सूरज के उगने से
पहले वो उठ जाती
झाड़ू लगाती
पोछा लगाती
फिर दिव्य खुशबु से
घर को महकाती
चा चा के मधुर गुंजन से
सबको जगाती
फिर जुट जाती
निज कर्म धर्म में
सबको खिलाती
सबको पिलाती
स्नेह की ममता
सब पर बरसाती
दुःख दर्द में भी
जो कभी न रंज करती
अन्श्रुओं की नेत्र गंगा
यदि कहीं से निकले
अपनी छाती में
उसको समाती
सभी को अच्छा
वो बनना सिखाती
ख्वाबों को हकीकत में
बदलना सिखाती
अब शब्द नहीं
कितना में लिखूं
शब्दों की दुनिया भी
छोटी पड़ जाती
वो तुम भी जानते
मैं भी हूँ जानता
इस सारे जहाँ का
हर जीव जानता
कौन है जो इतना
मधुर प्यार बरसाती
कोई नहीं और
वो मेरी “मां” है प्यारी
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